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जनतांत्रिक अपेक्षाओं आकांक्षाओं के विपरीत दिशा में अग्रसर चुनावी राजनीति पर विशेष

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जनतांत्रिक अपेक्षाओं आकांक्षाओं के विपरीत दिशा में अग्रसर चुनावी राजनीति पर विशेष-
✒सुप्रभात-सम्पादकीय✒
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साथियों,

देश की खुशहाली एकता अखंडता संभावना कौमी एकता आपसी  सौहार्द भाईचारे को बनाये रखने जैसी भावनाओं को बल प्रदान कर अक्षुण रखने जैसी जिन भावनाओं को लेकर जनतांत्रिक व्यवस्था के तहत लोकतंत्र की व्यवस्था की गई थी परिणाम उसके विपरीत आने लगे हैं। लोकतंत्र में चुनाव लोकप्रिय जनप्रिय  राष्ट्र प्रेमी सरकार के गठन के लिए होते हैं। लोकतंत्र में चुनाव के नाम पर सामाजिक ताने-बाने को तार तार कर के  आपसी सौहार्द कौमी एकता और भाईचारे को मटिया मेट करने के लिए नहीं होते हैं। लेकिन इसे भारत जैसे अखंड देश के लिये दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां पर स्थापित किया गया लोकतंत्र एवं जनतांत्रिक व्यवस्था इस देश की एकता अखंडता आपसी भाईचारे को मजबूती प्रदान करने की जगह आजादी के बाद से ही उसके लिए खतरा बनती जा रही है। जो  कौमी एकता भाईचारा आपसी भाईचारा 5 साल में जनता पैदा करती है उसे चुनाव आते ही राजनेता लोग कुर्सी पाने के चक्कर में रसातल में पहुंचाने में जुड़ जाते हैं और वोट पाने के लिए जात पात धर्म संप्रदाय आपसी सौहार्द एकता अखंडता सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। जनता 5 साल में जो कुछ भी सौहार्द भाईचारे का खूबसूरत महल बनाती है वह देखते ही देखते एक 2 महीने के चुनाव मैं मटिया मेट हो जाता है। चुनाव के दौरान वोट पाने के लिए जो हथकंडे और जिन तरीको, शब्दों एवं शैली का इस्तेमाल करके चुनाव प्रचार किया जाता है उससे हमारे लोकतंत्र को मजबूती तो कम मिलती है बल्कि हमारा लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष स्वरूप रक्त रंजित जैसे हो जात इस समय लोकसभा के चुनाव चल रहे हैं और चुनाव जीतने के लिए जिस भाषा शैली एवं कार्य शैली का इस्तेमाल हो रहा है उसे इस देश के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए  कतई हितकर नहीं कहा जा सकता है। एक तरफ जहां पूरे समाज को अगड़ा पिछड़ा दलित हिंदू मुस्लिम में बांटा जा रहा है वहीं हिंसा को बढ़ावा भी दिया जा रहा है। कल संपन्न हुए चौथे चरण के लोकसभा चुनाव के दौरान पश्चिम बंगाल में जिस तरह से हिंसा को बल मिला उससे लोकतांत्रिक मर्यादा तार-तार नहीं हुई बल्कि लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने के लिए बनाया गया लोकतंत्र का चौथा स्तंभ  प्रेस मीडिया भी अछूता नहीं बच सका और उसे भी राजनीतिक हिंसा का शिकार बनना पड़ा। इसे भी दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश में निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए बना चुनाव आयोग भी आरोपित होने लगा है और उस पर अंगुलियां उठने लगी हैं। चुनाव के दौरान राजनेताओं की जुबान इतनी बेलगाम हो जाती है कि उस पर अंकुश लगाने वाला कोई नहीं बचता है और चुनाव आयोग भी असहाय जैसी स्थिति में हो जाता है। इस देश के लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष रूप को बनाए रखने के लिए चुनाव के दौरान राजनेताओं की जुबान पर लगाम लगाना जनतांत्रिक व्यवस्था के उज्जवल भविष्य के लिए जैसे जरूरी होता जा रहा है। अगर समय रहते इस तरफ ध्यान नहीं दिया जाता है तो लगता है कि हम आजादी के एक शतक भी पूरा नहीं कर पाएंगे और हमारा अखंड देश खंड खंड होकर एक बार फिर से गुलामी के पथ पर अग्रसर हो सकता है। धन्यवाद।। भूल चूक गलती माफ।। सुप्रभात/ वंदे मातरम/ गुड मॉर्निंग/ नमस्कार/ आदाब/ शुभकामनाएं।।
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   भोलानाथ मिश्र
वरिष्ठ पत्रकार/समाजसेवी
रामसनेहीघाट, बाराबंकी यूपी।
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